Jan 27, 2011

मिट गया जब मिटाने वाला

मिट गया जब मिटाने वाला फिर सलाम आया तो क्या आया
दिल की बरबादी के बाद उन का पयाम आया तो क्या आया

छूट गईं नबज़ें उम्मीदें देने वाली हैं जवाब
अब उधर से नामाबर लेके पयाम आया तो क्या आया

आज ही मिलना था ए दिल हसरत-ए-दिलदार में
तू मेरी नाकामियों के बाद काम आया तो क्या आया

काश अपनी ज़िन्दगी में हम ये मंज़र देखते
अब सर-ए-तुर्बत कोई महशर-खिराम आया तो क्या आया

सांस उखड़ी आस टूटी छा गया जब रंग-ए-यास
नामबार लाया तो क्या ख़त मेरे नाम आया तो क्या

मिल गया वो ख़ाक में जिस दिल में था अरमान-ए-दीद
अब कोई खुर्शीद-वश बाला-इ-बाम आया तो क्या आया

                                                               ----- दिल शाहजहाँपुरी

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है


इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।
एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।
एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।
एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।
निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।
दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।
                                                       ---- दुष्यंत कुमार 

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए


हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
                                                ---- दुष्यंत कुमार 

मेरी कुंठा


मेरी कुंठा
रेशम के कीड़ों सी
ताने-बाने बुनती,
तड़प-तड़पकर
बाहर आने को सिर धुनती,
स्वर से
शब्दों से
भावों से
औ' वीणा से कहती-सुनती,
गर्भवती है
मेरी कुंठा – कुँवारी कुंती!

बाहर आने दूँ
तो लोक-लाज-मर्यादा
भीतर रहने दूँ
तो घुटन, सहन से ज़्यादा,
मेरा यह व्यक्तित्व
                   ---- दुष्यंत कुमार 

कुछ भी बन बस कायर मत बन


कुछ भी बन बस कायर मत बन ।

ठोकर मार पटक मत माथा
तेरी राह रोकते पाहन
कुछ भी बन बस कायर मत बन ।

तेरी रक्षा का न मोल है
पर तेरा मानव अनमोल है
यह मिटता है वह बनता है
अर्पण कर सर्वस्व मनुज को
कर न दुष्ट को आत्म समर्पण
कुछ भी बन बस कायर मत बन ।
                                    ---- दुष्यंत कुमार  

अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ


अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ,
तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ ।
ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है,
इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ ।
अँधेरे में कुछ ज़िंदगी होम कर दी,
उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ ।
वे संबंध अब तक बहस में टँगे हैं,
जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ ।
तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला,
तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ ।
मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब,
तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ ।
समाआलोचको की दुआ है कि मैं फिर,
सही शाम से आचमन कर रहा हूँ ।
                                       ---- दुष्यंत कुमार  

प्रतीक्षा


परदे हटाकर करीने से
रोशनदान खोलकर
कमरे का फर्नीचर सजाकर
और स्वागत के शब्दों को तोलकर
टक टकी बाँधकर बाहर देखता हूँ
और देखता रहता हूँ मैं।
सड़कों पर धूप चिलचिलाती है
चिड़िया तक दिखायी नही देती
पिघले तारकोल में
हवा तक चिपक जाती है बहती बहती,
किन्तु इस गर्मी के विषय में किसी से
एक शब्द नही कहता हूँ मैं।
सिर्फ़ कल्पनाओं से
सूखी और बंजर ज़मीन को खरोंचता हूँ
जन्म लिया करता है जो ऐसे हालात में
उनके बारे में सोचता हूँ
कितनी अजीब बात है कि आज भी
प्रतीक्षा सहता हूँ। 
                     ---- दुष्यंत कुमार 

मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे


मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे
इस बूढे पीपल की छाया में सुस्ताने आयेंगे

हौले-हौले पाँव हिलाओ जल सोया है छेडो मत
हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आयेंगे

थोडी आँच बची रहने दो थोडा धुँआ निकलने दो
तुम देखोगी इसी बहाने कई मुसाफिर आयेंगे

उनको क्या मालूम निरूपित इस सिकता पर क्या बीती
वे आये तो यहाँ शंख सीपियाँ उठाने आयेंगे

फिर अतीत के चक्रवात में दृष्टि न उलझा लेना तुम
अनगिन झोंके उन घटनाओं को दोहराने आयेंगे

रह-रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी
आगे और बढे तो शायद दृश्य सुहाने आयेंगे
मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आयेंगे

हम क्यों बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गये
इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जयेंगे

हम इतिहास नहीं रच पाये इस पीडा में दहते हैं
अब जो धारायें पकडेंगे इसी मुहाने आयेंगे
                                                   ----- दुष्यंत कुमार 

फिर कर लेने दो प्यार प्रिये

अब अंतर में अवसाद नहीं
चापल्य नहीं उन्माद नहीं
सूना-सूना सा जीवन है
कुछ शोक नहीं आल्हाद नहीं

तव स्वागत हित हिलता रहता
अंतरवीणा का तार प्रिये ..

इच्छाएँ मुझको लूट चुकी
आशाएं मुझसे छूट चुकी
सुख की सुन्दर-सुन्दर लड़ियाँ
मेरे हाथों से टूट चुकी

खो बैठा अपने हाथों ही
मैं अपना कोष अपार प्रिये
फिर कर लेने दो प्यार प्रिये

                              ---- दुष्यंत कुमार 

ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा

ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं आप को धोखा हुआ होगा

यहाँ तक आते आते सूख जाती हैं सभी नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा

गज़ब ये है कि अपनी मौत कि आहट नहीं सुनते
वो सब के सब परेशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा

तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुन कर तो लगता है
कि इंसानों के जंगल में कोई हनाका हुआ होगा

कई फ़ाके बिता कर मर गया जो उसके बारे में
वो सब कहते हैं अब ऐसा नहीं ऐसा हुआ होगा

यहाँ पर सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं
खुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा

चलो अब यादगारों कि अँधेरी कोठरी खोलें
कमज्कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा
                                                           ----- दुष्यंत कुमार  

कहाँ वो तय था चरागाँ हर इक घर के लिए

कहाँ वो तय था चरागाँ हर इक घर के लिए
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए

यहाँ दरख्तों के साए में धुप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए

न हो कमीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस शहर के लिए

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख्वाब सही
कोई हसीं नज़ारा तो है नज़र के लिए

वो मुतमईन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए

जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के लिए
मरें तो गैर कि गलियों में गुलमोहर के लिए
                                                     ---- दुष्यंत कुमार  

चांदनी छत पे चल रही होगी

चांदनी छत पे चल रही होगी
अब अकेली टहल रही होगी

फ़िर मेरा ज़िक्र आ गया होगा
वो बर्फ सी पिघल गयी होगी

कल का सपना बहुत सुहाना था
ये उदासी न कल रही होगी

सोचता हूँ कि बंद कमरे में
इक शमा सी जल रही होगी

तेरे गहनों सी खनकती थी
बाजरे कि फसल रही होगी

जिन हवाओं ने तुझको दुलराया
उनमें मेरी ग़ज़ल रही होगी
                              ----- दुष्यंत कुमार 

Jan 24, 2011

ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है

ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
समन्दरों ही के लहज़े में बात करता है

खुली छतों के दीये कब के बुझ गए होते
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है

शराफतों कि यहाँ कोई अहेमियत ही नहीं
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है

ज़मीं की कैसी विक़ालत हो फ़िर नहीं चलती
जब आसमान से कोई फैसला उतरता है

तुम आ गए हो तो फ़िर कुछ चांदनी से बातें हों
ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है
                                              ----- वसीम बरेलवी 

उसूलों पर जहां आंच आये टकराना जरुरी है

उसूलों पर जहां आंच आये टकराना ज़रूरी है
जो जिन्दा हों तो फ़िर जिंदा नज़र आना ज़रूरी है

नयी उम्रों की खुद-मुख्तारियों को कौन समझाए
कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है

थके हारे परिंदे जब बसेरे के लिए लौटे
सलीकामंद शाखों ने कहा लचक जाना ज़रूरी है

बहुत बेबाक़ आँखों में तालुक़ टिक नहीं पाता
मुहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है

सलीका ही नहीं शायद उसे महसूस करने का
जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है

मेरे होठों पे अपनी प्यास रख दो और फ़िर सोचो
कि इस के बाद भी दुनिया में कुछ पाना ज़रूरी है
                                                          ---- वसीम बरेलवी

मिली हवाओं में उड़ने कि वो सज़ा

मिली हवाओं में उड़ने कि वो सज़ा यारों
कि मैं ज़मीन के रिश्तों से कट गया यारों

वो बे-ख़याल मुसाफिर मैं रास्ता यारों
कहाँ था बस में मेरे उसको रोकना यारों

मेरे कलम पे ज़माने कि गर्द ऐसी थी
के अपने बारे में कुछ भी न लिख सका यारों

तमाम शहर ही जिसकी तलाश में गुम था
मैं उस के घर का पता किस से पूछता यारों
                                                   ----- वसीम बरेलवी   

मैं चाहता भी यही था वो बेवफा निकले

मैं चाहता भी यही था वो बेवफा निकले
उसे समझने का कोई तो सिलसिला निकले

किताब-ए-मंजिल का औराक उलट के देख ज़रा
न जाने कौन सा सफ़ाह मुडा हुआ निकले

जो देखने में बहुत ही क़रीब लगता है
उसी के बारे में सोचो तो फासला निकले
                                               ----- वसीम बरेलवी

मैं अपने ख्वाब से बिछड़ा नज़र नहीं आता

मैं अपने ख्वाब से बिछड़ा नज़र नहीं आता
तू इस सदी में अकेला नज़र नहीं आता

अजब दबाव है इन बाहरी हवाओं का
घरों का बोझ भी उठता नज़र नहीं आता

मैं इक सदा पे हमेशा को घर छोड़ आया था
मगर पुकारने वाला नज़र नहीं आता

मैं तेरी राह से हटने को हट गया लेकिन
मुझे तो कोई भी रास्ता नज़र नहीं आता

धुंआ भरा है यहाँ सभी कि आँखों में
किसी को घर मेरा जलता नज़र नहीं आता
                                                   ---- वसीम बरेलवी 

लहू न हो तो क़लाम तर्जुमाँ नहीं होता

लहू न हो तो क़लाम तर्जुमाँ नहीं होता
हमारे दौर में आंसू जुबां नहीं होता

जहां रहेगा वहीँ रौशनी लुटायेगा
किसी चिराग का अपना मकां नहीं होता

ये किस मक़ाम पे लायी है मेरी तन्हाई
के मुझ से आज कोई बदगुमां नहीं होता

मैं उस को भूल गया हूँ ये कौन मानेगा
किसी चिराग के बस में धुंआ नहीं होता

'वसीम' सदियों की आँखों से देखिये मुझको
वो लफ्ज़ हूँ जो कभी दास्ताँ नहीं होता
                                              ---- वसीम बरेलवी


अपने हर हर लफ्ज़ का खुद आइना हो जाऊँगा

अपने हर हर लफ्ज़ का खुद आइना हो जाऊँगा
उस को छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा

तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा ही नहीं
मैं गिरा तो मसला बन कर खड़ा हो जाऊँगा

मुझको चलने दो अकेला है अभी मेरा सफ़र
रास्ता रोका गया तो काफ़िला बन जाऊँगा

सारी दुनिया कि नज़र में है मेरा अहेद-ए-वफ़ा
एक तेरे कहने से क्या मैं बेवफ़ा हो जाऊंगा
                                                    ----- वसीम बरेलवी, 

अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है

अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपायें कैसे
तेरी मर्ज़ी की मुताबिक नज़र आयें कैसे

घर सजाने का तसव्वुर तो बहुत बाद का है
पहले ये तय हो कि इस घर को बचाएं कैसे

कह कहा आँख कि बर्ताव बदल देता है
हंसने वाले तुझे आंसू नज़र आयें कैसे

कोई अपनी ही नज़र से तो हमे देखेगा
इक क़तरे को समंदर नज़र आये कैसे
                                              ----- वसीम बरेलवी

आते आते मेरा नाम सा रह गया

आते आते मेरा नाम सा रह गया
उन के होठों पे कुछ काँपता रह गया

वो मेरे सामने ही गया और मैं
रास्ते कि तरह देखता रह गया

झूठ वाले कहीं से कहीं बढ़ गए
और मैं था कि सच बोलता रह गया

आँधियों के इरादे तो अच्छे न थे
ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया
                                         ----- वसीम बरेलवी


Jan 22, 2011

मैं अपने घर में ही अजनबी हो गया हूँ


मैं अपने घर में ही अजनबी हो गया हूँ आ कर
मुझे यहाँ देखकर मेरी रूह डर गई है
सहम के सब आरज़ुएँ कोनों में जा छुपी हैं
लवें बुझा दी हैं अपने चेहरों की, हसरतों ने
कि शौक़ पहचानता ही नहीं
मुरादें दहलीज़ ही पे सर रख के मर गई हैं
मैं किस वतन की तलाश में यूँ चला था घर से
कि अपने घर में भी अजनबी हो गया हूँ आ कर 
                                                        ----- गुलज़ार 

क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं

क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं
नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ
जुनूँ ये मजबूर कर रहा है पलट के देखूँ
ख़ुदी ये कहती है मोड़ मुड़ जा
अगरचे एहसास कह रहा है
खुले दरीचे के पीछे दो आँखें झाँकती हैं
अभी मेरे इंतज़ार में वो भी जागती है
कहीं तो उस के गोशा-ए-दिल में दर्द होगा
उसे ये ज़िद है कि मैं पुकारूँ
मुझे तक़ाज़ा है वो बुला ले
क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं
नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ

                            ----- गुलज़ार 

एक पुराना मौसम लौटा

एक पुराना मौसम लौटा याद भरी पुरवाई भी
ऐसा तो कम ही होता है वो भी हो तन्हाई भी

यादों कि बौछारों से जब पलकें भीगने लगती है
कितनी सौंधी लगती है तब मांजी की रुसवाई भी

दो दो शक्लें दिखती हैं इस बहके से आईने में
मेरे साथ चला आया है आपका इक सौदाई भी

ख़ामोशी का हासिल भी इक लम्बी सी ख़ामोशी है
उनकी बात सुनी भी हमने अपनी बात सुनाई भी
                                                         ---- गुलज़ार 

जिंदगी यूँ हुई बसर तनहा

जिंदगी यूँ हुई बसर तनहा
काफिला साथ और सफ़र तनहा

अपने साए से चौंक जाते हैं
उम्र गुज़री है इस क़दर तनहा

रात भर बोलते हैं सन्नाटे
रात काटे कोई किधर तनहा

दिन गुज़रता नहीं है लोगों में
रात होती नहीं बसर तनहा

हमने दरवाज़े तक तो देखा था
फ़िर न जाने गए किधर तनहा
                                     ---- गुलज़ार  

हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते

हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते
वक़्त कि शाख से लम्हे नहीं तोड़ा करते

जिसकी आवाज़ में सिलवट हो निगाहों में शिकन
ऐसी तस्वीर के टुकड़े नहीं जोड़ा करते

शहद जीने का मिला करता है थोड़ा थोड़ा
जाने वालो के लिए दिल नहीं थोड़ा करते

लग के साहिल से जो बहता है उसे बहने दो
ऐसी दरिया का कभी रुख नहीं मोड़ा करते
वक़्त कि शाख से लम्हे नहीं तोड़ा करते
                                                 ----- गुलज़ार                                    


इस मोड़ से जाते हैं

इस मोड़ से जाते हैं
कुछ सुस्त क़दम रस्ते
कुछ तेज क़दम राहें

पत्थर कि हवेली को
शीशे के घरौंदों में
तिनकों के नशेमन तक
इस मोड़ से जाते हैं

आंधी कि तरह उड़ कर
इक राह गुज़रती है
शर्माती हुई कोई
क़दमों से उतरती है

इन रेशमी राहों में
इक राह तो वह होगी
तुम तक जो पहुँचती है
इस मोड़ से जाती है

इक दूर से आती है
पास आ के पलटती है
इक राह अकेली सी
रूकती है न चलती है

ये सोच के बैठी हूँ
इक राह तो वह होगी

तुम तक जो पहुँचती है 
इस मोड़ से जाती है 
                       ---- गुलज़ार 









आदतन तुमने कर दिए वादे

आदतन तुमने कर दिए वादे
आदतन हमने ऐतबार किया

तेरी राहों में बारहा रुक कर
हमने अपना ही इंतज़ार किया

अब न मांगेंगे ज़िन्दगी या रब
ये गुनाह हमने इक बार किया
                                      ----- गुलज़ार

नज़्म उलझी हुई है सीने में

नज़्म उलझी हुई है सीने में
मिसरे अटके हुए हैं होठों पर
उड़ते फिरते हैं तितलियों कि तरह
लफ्ज़ कागज़ पे बैठे ही नहीं
कब से बैठा हूँ मैं जानम
सादे कागज़ पे लिख के नाम तेरा

बस तेरा नाम ही मुकम्मल है
इस से बेहतर भी नज़्म क्या होगी
                                       ------ गुलज़ार

शाम से आँख में नमी सी है

शाम से आँख में नमी सी है
आज फिर आप की  कमी सी है

दफ़्न कर दो हमें कि सांस मिले
नब्ज़ कुछ देर से थमी सी है

वक़्त रहता नहीं कहीं छुप कर
इस की आदत भी आदमी सी है

कोई रिश्ता नहीं रहा फिर भी
एक तस्लीम लाज़मी सी है
                                 ----- गुलज़ार

सांस लेना भी कैसी आदत है

सांस लेना भी कैसी आदत है 
जिए जाना भी क्या रवायत है 
कोई आहट नहीं बदन में कहीं 
कोई साया नहीं है आँखों में 
पांव बेहिस हैं, चलते जाते हैं 
इक सफ़र है जो बहता रहता है 
कितने बरसों से, कितनी सदियों से 
जिए जाते हैं, जिए जाते हैं 

आदतें भी अजीब होती हैं 
                              ---- सम्पूरन सिंह "गुलज़ार' 

Jan 19, 2011

बहुत मिला न मिला जिंदगी से

बहुत मिला न मिला जिंदगी से ग़म क्या है
मता-ए-दर्द बहम है तो बेश-ओ-कम क्या है

हम एक उम्र से वाकिफ़ हैं अब न समझाओ
के लुत्फ़ क्या है मेरे मेहरबां सितम क्या है

करे न जग में अलाव तो शेर किस मक़सद
करे न शहर में जल-थल तो चश्म-ए-नम क्या

अजल के हाथ कोई आ रहा है परवाना
ना जाने आज कि फेहरिश्त में रक़म क्या है

सजाओ बज़्म ग़ज़ल गाओ जाम ताज़ा करो
बहुत सही ग़म-ए-गेत्ती शराब कम क्या है

लिहाज़ में कोई कुह दूर साथ चलता है
वगरना दहर में अब खिज्र का भरम क्या है
                                                   ---- फैज़ अहमद फैज़


ठानी थी दिल में अब न मिलेंगे

ठानी थी दिल में अब न मिलेंगे किसी से हम
पर क्या करें कि हो गए नाचार जी से हम

हम से न बोलो तुम इसे कहते हैं क्या भला
इन्साफ कीजे पूछते हैं आप ही से हम

क्या गुल खिलेगा देखिये है फ़स्ल-ए-गुल तो दूर
और सू-ए-दश्त भागते हैं कुछ अभी से हम

क्या दिल को ले गया कोई बेगाना आशना
क्यों अपने जी को लगते हैं कुछ अजनबी से हम
                                                        ------- मोमिन खान मोमिन 

मार ही डाल मुझे

मार ही डाल मुझे चश्म-ए-अदा से पहले
अपनी मंज़िल को पहुँच जाऊं क़ज़ा से पहले

इक नज़र देख लूं आ जाओ क़ज़ा से पहले
तुमसे मिलने की तमन्ना है ख़ुदा से पहले

हश्र के रोज़ मैं पूछुंगा ख़ुदा से पहले
तू ने रोका नहीं क्यों मुझको ख़ता से पहले

ऐ मेरी मौत ठहर उनको ज़रा आने दे
ज़हर का जाम न दे मुझको दवा से पहले

हाथ पहुंचे भी न थे जुल्फ़ दोता तक 'मोमिन'
हथकड़ी डाल दी ज़ालिम ने ख़ता से पहले 
                                                   ---- मोमिन खान मोमिन

Jan 18, 2011

रोया करेंगे आप भी

रोया करेंगे आप भी पहरों इसी तरह
अटका कहीं जो आपका दिल भी मेरी तरह

ना ताब हिज्र में है ना आराम वस्ल में
कमबख्त दिल को चैन नहीं है किसी तरह

गर चुप रहे तो ग़म-ए-हिज्राँ से छूट जाएँ
कहते तो हैं वो भले की लेकिन बुरी तरह

ना जाए वां बने है ना बिन जाए चैन है
क्या कीजिये हमें तो है मुश्किल सभी तरह

लगती है गालियाँ भी तेरी मुझे क्या भली
कुर्बान तेरे, फिर मुझे कह ले इसी तरह

हूँ जां-ए-बलब बुतां-ए-सितमगर के हाथ से
क्या सब जहां में जीते हैं 'मोमिन' इसी तरह
                                                      ----- मोमिन खान मोमिन 

कुछ इश्क किया कुछ काम किया

वो लोग बहुत खुश किस्मत थे
जो इश्क को काम समझते थे
या काम को इश्क करते थे
हम जीते जी मसरूफ रहे
कुछ इश्क किया कुछ काम किया

काम इश्क के आड़े आता रहा
और इश्क से काम उलझता रहा
फिर आखिर तंग आकर हम ने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया
                                 ------- फैज़ अहमद फैज़ 

ख़ुदा वो वक़्त न लाये कि सोगवार हो तू

ख़ुदा वो वक़्त न लाये कि सोगवार हो तू 
सुकूं की नींद तुझे भी हराम हो जाए  
तेरी मसर्रत-ए-पैहाम तमाम हो जाए 
तेरी हयात तुझे तल्ख़ जाम हो जाए 

ग़मों से आइना-ए-दिल गुदाज़ हो तेरा 
हुजूम-ए-यास से बेताब हो के रह जाए 
वफूर-ए-दर्द से सिम़ाब हो के रह जाए 
तेरा श़बाब फ़क़त ख्वाब हो के रह जाए 

गुरुर-ए-हुस्न सरापा नियाज़ हो तेरा  
तवील रातों में तू भी करार को तरसे 
तेरी निगाह किसी ग़म गुसार को तरसे 
खिज़ां रसीदां तमन्ना बहार को तरसे 

कोई जबीं न तेरे संग-ए-आस्तां पे झुके  
कि जिंस-ए-ईज-ओ-अकीदत से तुझ को शाद करे 
फरेब-ए-वादा-ए-फर्दा पे एतमाद करे 
ख़ुदा वो वक़्त न लाये के तुझ को याद आये 

वो दिल कि तेरे लिए बेक़रार अब भी है 
वो आँख जिस को तेरा इंतज़ार अब भी है 
                                                    ----- फैज़ अहमद फैज़ 

कब याद में तेरा साथ नहीं

कब याद में तेरा साथ नहीं कब हाथ में तेरा हाथ नहीं
सद शुक्र के अपनी रातों में अब हिज्र कि कोई रात नहीं

मुश्किल हैं अगर हालात वहाँ दिल दिल बेच आयें जां बेच आयें
दिल वालों कूचां-ए-जानां में क्या ऐसे भी हालात नहीं

जिस धज से कोई मकतल में गया वो शान सलामत रहती है
ये जां तो आनी जानी है इस जान कि कोई बात नहीं

मैदान-ए-वफ़ा दरबार नहीं या नाम-ओ-नसब कि पूछ कहाँ
आशिक़ तो किसी का नाम नहीं कुछ इश्क किसी कि ज़ात नहीं

गर बाज़ी इश्क कि बाज़ी है जो चाहो लगा दो डर कैसा
गर जीत गए तो क्या कहना हारे भी तो बाज़ी मात नहीं
                                                                   ------- फैज़ अहमद फैज़

कब तक दिल की ख़ैर मनाएं

कब तक दिल की ख़ैर मनाएं, कब तक राह दिखाओगे
कब तक चैन की मोहलत दोगे, कब तक याद न आओगे

बीता दीद उम्मीद का मौसम, ख़ाक उड़ाती है आँखों में
कब भेजोगे दर्द का बादल, कब बरखा बरसाओगे

अहद-ए-वफ़ा और तर्क-ए-मोहब्बत जो चाहे सो आप करो
अपने बस की बात ही क्या है, हम से क्या मनवाओगे

किसने वस्ल का सूरज देखा, किस पर हिज्र की रात ढली
गेसुओं वाले कौन थे, क्या थे, उनको क्या जतलाओगे

'फैज़' दिलों के बाग़ में है घर बसाना भी और लुट जाना भी
तुम उस हुस्न के लुत्फ़-ओ-करम पर कितने दिन इतराओगे
                                                                          ----- फैज़ अहमद फैज़

दुआ

 आइये हाथ उठाएं हम भी
हम जिन्हें रस्म-ए-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोज़-ए-मोहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई खुदा याद नहीं

आइये अर्ज़ गुज़रें कि निगार-ए-हस्ती
ज़हर-ए-इमरोज़ में शिरीनी-ए-फर्दान भर दें
वो जिन्हें तबे गरांबारी-ए-अय्याम नहीं
उनकी पलकों पे शब्-ओ-रोज़ को हल्का कर दें

जिनकी आँखों को रुख-ए-सुभ का यारा भी नहीं
उनकी रातों में कोई शमा मुन्नवर कर दें
जिनके क़दमों को किसी राह का सहारा भी नहीं
उनकी नज़रों पे कोई राह उजागर कर दें

जिनका दीन पैरवी-ए-कज्बो-रिया है उनको
हिम्मते-कुफ्र मिले, जुर्रत-ए-तेहकीक़ मिले
जिनके सर मुन्तज़िर-ए-तेग-ए-ज़फ़ा हैं उनको
दस्त-ए-क़ातिल को झटक देने कि तौफीक़ मिले

इश्क का सर-ए-निहां जां तपां है जिस से
आज इक़रार करें और तपिश मिल जाए
हर्फ़-ए-हक़ दिल में खटकता है जो कांटे कि तरह
आज इज़हार करें और खलिश मिट जाए
                                                      ---- फैज़ अहमद फैज़

दिल में अब यूँ तेरे भूले हुए ग़म

दिल में अब यूँ तेरे भूले हुए ग़म आते हैं
जैसे बिछड़े हुए क़ाबे में सनम आते हैं

एक एक कर के हुए जाते हैं तारे रौशन
मेरी मंजिल की तरफ तेरे क़दम आते हैं

रक्स-ए-मय तेज़ करो, साज़ की लय तेज़ करो
सू-ए-मयखाना सफिरां-ए-हरम आते हैं

कुछ हमीं को नहीं एहसान उठाने का दिमाग
वो तो जब आते हैं माइल-बा-करम आते हैं

और कुछ देर न गुज़रे शब्-ए-फुरक़त से कहो
दिल भी कम दुखता है वो याद भी कम आते हैं
                                                        ---- फैज़ अहमद फैज़

चाँद निकले किसी ज़ानिब

चाँद निकले किसी ज़ानिब तेरी ज़ेबाई का
रंग बदले किसी सूरत शब्-ए-तन्हाई का

दौलत-ए-लब से फिर आई खुस्राव-ए-शिरीन-दहान
आज रिज़ा हो कोई हर्फ़ शहंशाही का

दीदा-ओ-दिल को संभालो की सर-ए-शाम-ए-फ़िराक़
साज़-ओ-सामान बहम पहुंचना है रुसवाई का
                                                     ----- फैज़ अहमद फैज़ 

Jan 17, 2011

आये कुछ अब्र कुछ शराब आये

आये कुछ अब्र कुछ शराब आये
उसके बाद आये जो अज़ाब आये

बाम-ए-मीना से माहताब उतरे
दस्त-ए-साक़ी में आफताब आये

हर राग-ए-खूं में फिर चरागाँ हो
सामने फिर वो बेनक़ाब आये

उम्र के हर वरक़ पे दिल को नज़र
तेरी मैहर-ओ-वफ़ा के बाद आये

कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब
आज तुम याद बे हिसाब आये

न गयी तेरे ग़म की सरदारी
दिल में यूँ रोज़ इंक़लाब आये

जल उठे बज़्म-ए-गैर के दर-ओ-बाम
जब भी हम खानमां खराब आये

इस तरह अपनी खामोशी गूंजी
गोया हर सिम्त से जवाब आये

'फैज़' थी राह सर बसर मंजिल
हम जहाँ पहुंचे कामयाब आये |
                                 --- फैज़ अहमद फैज़ 

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए कातिल में है
करता नहीं क्यूँ दूसरा कुछ बातचीत,
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है
ए शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार,
अब तेरी हिम्मत का चरचा गैर की महफ़िल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ए आसमान,
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है
खैंच कर लायी है सब को कत्ल होने की उम्मीद,
आशिकों का आज जमघट कूच-ए-कातिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
है लिये हथियार दुशमन ताक में बैठा उधर,
और हम तैय्यार हैं सीना लिये अपना इधर.
खून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
हाथ जिन में हो जुनून कटते नही तलवार से,
सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से.
और भड़केगा जो शोला-सा हमारे दिल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
हम तो घर से निकले ही थे बाँधकर सर पे कफ़न,
जान हथेली पर लिये लो बढ चले हैं ये कदम.
जिन्दगी तो अपनी मेहमान मौत की महफ़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
यूँ खड़ा मौकतल में कातिल कह रहा है बार-बार,
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है.
दिल में तूफ़ानों कि टोली और नसों में इन्कलाब,
होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको ना आज.
दूर रह पाये जो हमसे दम कहाँ मंज़िल में है,
वो जिस्म भी क्या जिस्म है जिसमें ना हो खून-ए-जुनून
तूफ़ानों से क्या लड़े जो कश्ती-ए-साहिल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए कातिल में है
                                      --- राम प्रसाद बिस्मिल 

यूँ तेरी रहगुज़र से

यूँ तेरी रहगुज़र से दीवानावार गुज़रे
काँधे पे अपने रख के अपना मज़ार गुज़रे

बैठे रहे हैं रस्ते में दिल का खँडहर सजा के
शायद इसी तरफ से एक दिन बहार गुज़रे

बहती हुई ये नदिया घुलते हुए किनारे
कोई तो पार उतरे कोई तो पार गुज़रे

तूने भी हमको देखा हमने भी तुझको देखा
तू दिल ही हार गुज़रा हम जां हार गुज़रे |
                                                 --- मीना कुमारी 'नाज़'
 

ये रात ये तन्हाई

ये रात ये तन्हाई 
ये दिल के धड़कने की आवाज़ 
ये सन्नाटा 

ये डूबते तारों की 
खामोश ग़ज़ल ख्वानी 
ये वक़्त की पलकों पर 
सोती हुई वीरानी 
जज़्बात-ए-मोहब्बत की 
ये आखिरी अंगडाई 
बजती हुई हर ज़ानिब 
ये मौत की शहनाई 

सब तुम को बुलाते हैं 
पल भर को तुम आ जाओ 
बंद होती मेरी आँखों में 
मोहब्बत का 
इक ख्वाब सजा जाओ 
                     --- मीना कुमारी 'नाज़'  

पूछते हो तो सुनो कैसे बसर होती है

पूछते हो तो सुनो कैसे बसर होती है 
रात खैरात की सदके की सेहर होती है 


सांस भरने को तो जीना नहीं कहते या रब 
दिल ही दुखता है न अब आस्तीन तर होती है 


जैसे जागी हुई आँखों में चुभें कांच के ख्वाब 
रात इस तरह दीवानों की बसर होती है 


ग़म ही दुश्मन है मेरा ग़म को ही दिल ढूँढता है 
एक लम्हे की जुदाई भी अगर होती है 


एक मरकज़ की तलाश एक भटकती खुशबू 
कभी मंजिल कभी तम्हीद-ए-सफ़र होती है |
                                            --- मीना कुमारी 'नाज़'

चाँद तनहा है आसमां तनहा

चाँद तनहा है आसमां तनहा
दिल मिला है कहाँ कहाँ तनहा

बुझ गयी आस छुप गया तारा
थरथराता रहा धुआं तनहा

जिंदगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तनहा है और जां तनहा

हमसफ़र कोई गर मिले भी कहीं
दोनों चलते रहे तनहा तनहा

जलती बुझती सी रौशनी के परे
सिमटा सिमटा सा एक मकां तनहा

राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जायेंगे ये जहां तनहा
                             --- मीना कुमारी 'नाज़'

आगाज़ तो होता है अंजाम नहीं होता

आगाज़ तो होता है अंजाम नहीं होता
जब मेरी कहानी में वो नाम नहीं होता

जब ज़ुल्फ़ की कालिख़ में घुल जाए कोई राही
बदनाम सही लेकिन गुमनाम नहीं होता

हँस हँस के जवां दिल के हम क्यों न चुने टुकड़े
हर शख्स की किस्मत में ईनाम नहीं होता

बहते हुए आंसू ने आँखों से कहा थम कर
जो मय से पिघल जाए वो जाम नहीं होता

दिन डूबे हैं या डूबी बारात लिए कश्ती
साहिल पे मगर कोई कोहराम नहीं होता
                                      --- मीना कुमारी 'नाज़'

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 महजबीं बानो जिनको भारतीय फिल्म जगत में ट्रेजेडी क़ुईन मीना कुमारी के नाम से जाना जाता है | वो जितनी अच्छी अदाकारा थीं उतनी ही अच्छी शायर भी थीं |

हाथ उठे हैं मगर लब पे दुआ कोई नहीं

हाथ उठे हैं मगर लब पे दुआ कोई नहीं
की इबादत भी वो जिस की जज़ा कोई नहीं

ये भी वक़्त आना था अब तो गोश हर आवाज़ है
और मेरे बर्बाद-ए-दिल में सदा कोई नहीं

आ के अब तस्लीम कर लें तू नहीं तो मैं सही
कौन मानेगा की हम में बेवफा कोई नहीं

वक़्त ने वो ख़ाक उडाई है के दिल के दश्त से
काफिले गुज़रे हैं फिर भी नक्श-ए-पा कोई नहीं

खुद को यूँ महसूर कर बैठा हूँ अपनी ज़ात में
मंजिलें चारों तरफ हैं रास्ता कोई नहीं

कैसे रास्तों से चले और किस जगह पहुंचे 'फ़राज़'
या हुजूम-ए-दोस्तां था साथ या कोई नहीं
                                                     - अहमद फ़राज़

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अहमद फ़राज़ (उर्दू : احمد فراز) पाकिस्तानी उर्दू शायर थे| उनका असली नाम सएद अहमद शाह (سید احمد شاہ) था. अहमद  फ़राज़ का देहांत २५ अगस्त २००८ को इस्लामाबाद में हुआ|
                                        

अब नए साल की मोहलत नहीं मिलने वाली

अब नए साल की मोहलत नहीं मिलने वाली
आ चुके अब तो शब्-ओ-रोज़ अज़ाबों वाले

अब तो सब दशना-ए-खंज़र की जुबां बोलते हैं
अब कहाँ लोग मोहब्बत के निभाने वाले

ज़िंदा रहने की तमन्ना हो तो हो जाते हैं
फाख्ताओं के भी किरदार उकाबों वाले

न मेरे ज़ख्म खिलने हैं न तेरा रंग-ए-हिना
मौसम आये ही नहीं अबकी गुलाबों वाले
                                              --- फ़राज़

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अहमद फ़राज़ (उर्दू : احمد فراز) पाकिस्तानी उर्दू शायर थे| उनका असली नाम सएद अहमद शाह (سید احمد شاہ) था. अहमद  फ़राज़ का देहांत २५ अगस्त २००८ को इस्लामाबाद में हुआ|

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें ,

ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये खजाने तुझे मुमकिन है खराबों में मिलें ,

तू खुदा है न मेरा इश्क फरिश्तों जैसा 
दोनों इंसान हैं तो क्यों इतने हिज़ाबों में मिलें ,

ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें ,

आज हम दार पर खींचे गए जिन बातों पर
क्या अजब कल वो जमाने को नसीबों में मिले ,

अब न वो मैं हूँ न तू है ना वो माज़ी है 'फ़राज़'
जैसे दो शक्श तमन्ना के सराबों में मिलें

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अहमद फ़राज़ (उर्दू : احمد فراز) पाकिस्तानी उर्दू शायर थे| उनका असली नाम सएद अहमद शाह (سید احمد شاہ) था. अहमद  फ़राज़ का देहांत २५ अगस्त २००८ को इस्लामाबाद में हुआ|

आशिकी बे-दिली से मुश्किल है

आशिकी  बे-दिली से मुश्किल है
फिर मोहब्बत उसी से मुश्किल है ,

इश्क आगाज़ से ही मुश्किल है
सब्र करना अभी से मुश्किल है,

जिसको सब बे वफ़ा समझते हों
बेवफ़ाई उसी से मुश्किल है

एक दो दुसरे से सहल न जान
हर कोई हर किसी से मुश्किल है


तू बा-जिद है तो जा 'फ़राज़' मगर
वापसी उस गली से मुश्किल है |
                                    ----- अहमद फ़राज़

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अहमद फ़राज़ (उर्दू : احمد فراز) पाकिस्तानी उर्दू शायर थे| उनका असली नाम सएद अहमद शाह (سید احمد شاہ) था. अहमद  फ़राज़ का देहांत २५ अगस्त २००८ को इस्लामाबाद में हुआ|