Jan 27, 2011

कहाँ वो तय था चरागाँ हर इक घर के लिए

कहाँ वो तय था चरागाँ हर इक घर के लिए
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए

यहाँ दरख्तों के साए में धुप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए

न हो कमीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस शहर के लिए

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख्वाब सही
कोई हसीं नज़ारा तो है नज़र के लिए

वो मुतमईन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए

जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के लिए
मरें तो गैर कि गलियों में गुलमोहर के लिए
                                                     ---- दुष्यंत कुमार  

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