नज़्म उलझी हुई है सीने में
मिसरे अटके हुए हैं होठों पर
उड़ते फिरते हैं तितलियों कि तरह
लफ्ज़ कागज़ पे बैठे ही नहीं
कब से बैठा हूँ मैं जानम
सादे कागज़ पे लिख के नाम तेरा
बस तेरा नाम ही मुकम्मल है
इस से बेहतर भी नज़्म क्या होगी
------ गुलज़ार
मिसरे अटके हुए हैं होठों पर
उड़ते फिरते हैं तितलियों कि तरह
लफ्ज़ कागज़ पे बैठे ही नहीं
कब से बैठा हूँ मैं जानम
सादे कागज़ पे लिख के नाम तेरा
बस तेरा नाम ही मुकम्मल है
इस से बेहतर भी नज़्म क्या होगी
------ गुलज़ार
No comments:
Post a Comment