Jan 18, 2011

दुआ

 आइये हाथ उठाएं हम भी
हम जिन्हें रस्म-ए-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोज़-ए-मोहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई खुदा याद नहीं

आइये अर्ज़ गुज़रें कि निगार-ए-हस्ती
ज़हर-ए-इमरोज़ में शिरीनी-ए-फर्दान भर दें
वो जिन्हें तबे गरांबारी-ए-अय्याम नहीं
उनकी पलकों पे शब्-ओ-रोज़ को हल्का कर दें

जिनकी आँखों को रुख-ए-सुभ का यारा भी नहीं
उनकी रातों में कोई शमा मुन्नवर कर दें
जिनके क़दमों को किसी राह का सहारा भी नहीं
उनकी नज़रों पे कोई राह उजागर कर दें

जिनका दीन पैरवी-ए-कज्बो-रिया है उनको
हिम्मते-कुफ्र मिले, जुर्रत-ए-तेहकीक़ मिले
जिनके सर मुन्तज़िर-ए-तेग-ए-ज़फ़ा हैं उनको
दस्त-ए-क़ातिल को झटक देने कि तौफीक़ मिले

इश्क का सर-ए-निहां जां तपां है जिस से
आज इक़रार करें और तपिश मिल जाए
हर्फ़-ए-हक़ दिल में खटकता है जो कांटे कि तरह
आज इज़हार करें और खलिश मिट जाए
                                                      ---- फैज़ अहमद फैज़

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