Jan 24, 2011

ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है

ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
समन्दरों ही के लहज़े में बात करता है

खुली छतों के दीये कब के बुझ गए होते
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है

शराफतों कि यहाँ कोई अहेमियत ही नहीं
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है

ज़मीं की कैसी विक़ालत हो फ़िर नहीं चलती
जब आसमान से कोई फैसला उतरता है

तुम आ गए हो तो फ़िर कुछ चांदनी से बातें हों
ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है
                                              ----- वसीम बरेलवी 

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