ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
समन्दरों ही के लहज़े में बात करता है
खुली छतों के दीये कब के बुझ गए होते
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है
शराफतों कि यहाँ कोई अहेमियत ही नहीं
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है
ज़मीं की कैसी विक़ालत हो फ़िर नहीं चलती
जब आसमान से कोई फैसला उतरता है
तुम आ गए हो तो फ़िर कुछ चांदनी से बातें हों
ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है
----- वसीम बरेलवी
समन्दरों ही के लहज़े में बात करता है
खुली छतों के दीये कब के बुझ गए होते
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है
शराफतों कि यहाँ कोई अहेमियत ही नहीं
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है
ज़मीं की कैसी विक़ालत हो फ़िर नहीं चलती
जब आसमान से कोई फैसला उतरता है
तुम आ गए हो तो फ़िर कुछ चांदनी से बातें हों
ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है
----- वसीम बरेलवी
nice :-)
ReplyDeleteHi Niki thanks for visiting the blog...
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